विशुद्धसागर जी का जीवन दर्शन: जैन धर्म में तप, संयम और साधना का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है।
आचार्य श्री 108 विशुद्धसागर जी महाराज ने अपने जीवन को ऐसे मूल्य और सिद्धांतों के अनुरूप ढाला,
जो केवल धार्मिक अनुशासन नहीं, बल्कि सच्चे जीवन के मार्गदर्शन के स्तंभ हैं।
उन्होंने अपने जीवन में अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह के मूल्यों को अपनाया और इन्हें केवल सिद्धांतों
तक सीमित न रखते हुए, व्यवहार में उतारा। उनकी शिक्षाएँ साधकों के लिए साधना का मार्ग बन गईं,
और आम जनता के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनकर उभरीं। उनके उपदेशों से स्पष्ट होता है कि
सच्ची साधना और तप केवल शरीर के त्याग में नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म के संयम में है।
विशुद्धसागर जी की शिक्षाएँ न केवल जैन अनुयायियों के लिए मार्गदर्शक हैं,
बल्कि हर व्यक्ति के लिए अनुशासन, नैतिकता और आध्यात्मिक उन्नति की राह खोलती हैं।
उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि सच्ची आध्यात्मिक शक्ति अपने विचारों और कर्मों में स्थिरता,
संयम और सच्चाई लाने में है।
यह सिर्फ़ एक महोत्सव नहीं, यह एक युग का उत्सव है।
पट्टाचार्य महोत्सव, जो आज इंदौर की पुण्यभूमि पर मनाया जा रहा है, महज एक समारोह नहीं —
यह उस आत्मा की साधना का उत्सव है, जिसने वैराग्य के बीज से सिद्धि की फसल उगाई।
विशुद्धसागर जी जीवन दर्शन: साधु जीवन की जड़ें — बचपन से
18 दिसंबर 1971, भिंड ज़िले के रूर गांव में जन्मे राजेन्द्र (लला) —
आज जिनकी पहचान आचार्य श्री 108 विशुद्धसागर जी के रूप में है —
उनका जीवन शुरुआत से ही असाधारण रहा।
पिता रामनारायण जी और माता रत्तीबाई जी — दोनों ने आगे चलकर दीक्षा ली
और समाधि मरण को प्राप्त किया।
यह कोई साधारण परिवार नहीं, बल्कि संयम की जीवंत परंपरा का घर रहा है।
विशुद्धसागर जी जीवन दर्शन: जब सात वर्ष के बच्चे ने कहा — “मुझे मुनि बनना है!”
- 7 वर्ष की उम्र में रात्रिभोजन और अभक्ष्य का त्याग
- 8 वर्ष की उम्र में सप्त व्यसन और अष्ट मूलगुणों का पालन
- 13 वर्ष में शिखरजी की वंदना और नियम — “बिना देवदर्शन अन्न नहीं”
- अपने गांव के जिनालय में ब्रह्मचर्य व्रत का अंगीकार
और जब बहन ने पूछा — “तू खेलता क्यों नहीं?”
तो मासूम पर तेजस्वी उत्तर था — “दीदी, मुझे मुनि बनना है
खेलते समय अंगभंग हो गया तो दीक्षा कैसे लूंगा?”
क्या आपने कभी इतना गंभीर उत्तर किसी बालक से सुना है?
तीर्थवंदना और संतसंग — भीतर का रूपांतरण
श्री सम्मेद शिखरजी से लेकर सोनागिरी तक, बचपन में ही इतनी तीर्थयात्राएं और संतों का संग —
हर अनुभव ने आत्मा को और निर्मल किया, और तपस्या की ओर प्रेरित।
विशुद्धसागर जी जीवन दर्शन: संयम की सीढ़ियाँ — दीक्षा पथ पर पदचिन्ह
- 11 अक्टूबर 1988, भिंड: क्षुल्लक दीक्षा (नाम: यशोधरसागर जी)
- 19 जून 1991, पन्नानगर: ऐलक दीक्षा
- 21 नवंबर 1991, श्रेयांसगिरी: मुनि दीक्षा — और बने मुनि श्री 108 विशुद्धसागर जी महाराज
आज वही बालक, एक संघ प्रमुख, शास्त्रज्ञ, प्रवचनकर्ता और युगद्रष्टा के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
विशुद्धसागर जी जीवन दर्शन: विचार जो जीवन बदल दें — “नमोस्तु शासन जयवंत हो”
उनका जीवन केवल प्रवचन नहीं, एक चलता-फिरता आदर्श है।
सत्य, अहिंसा, जियो और जीने दो — ये उनके लिए उपदेश नहीं, बल्कि आचरण हैं।
वे आज के युवाओं के लिए जीते-जागते वैराग्य की प्रेरणा हैं।
उनका मौन भी साधना है, और मौन से भी मार्गदर्शन मिलता है।
विशुद्धसागर जी जीवन दर्शन: पट्टाचार्य महोत्सव: एक युगपुरुष को समर्पित
इंदौर आज स्वयं को सौभाग्यशाली मानता है —
जहां संयम के सम्राट का पट्टाचार्य महोत्सव मनाया जा रहा है। यह आयोजन केवल भव्यता का प्रतीक नहीं,
यह संस्कारों की पुनर्स्थापना है।
जहां हर आगंतुक को अपने भीतर के विशुद्ध स्वरूप से मिलन का अनुभव होगा।
“आत्मा की शुद्धि ही विशुद्ध जीवन है, और वही विशुद्धता आज युग को दिशा दे रही है
– आचार्य श्री 108 विशुद्धसागर जी महाराज के माध्यम से।”
तो आइए, इस वैराग्ययात्रा का साक्षी बनें — और उस दिव्य ज्योति से स्वयं को आलोकित करें।